शाह जहां के मरने का राज सबके सामने आया
सितंबर 1657 की एक सुबह जब शाहजहां नींद से उठे, तो उन्होंने खुद को बीमार महसूस किया। उस रोज़ वह हर रोज़ की तरह अपनी रियाया को झरोखा दर्शन भी नहीं दे सके। दरबार भी मुल्तवी कर दिया गया। उस रोज़ के बाद आवाम के बीच आए हुए शाहजहां को हफ्ते भर से ज्यादा वक्त बीत गया,
जिसका अंजाम ये हुआ की हुकूमत भर में बादशाह की कमज़ोरी की ख़बर आग की तरह फैल गई, दुकानदार घबरा गए, लूटपाट का बाजार गर्म हो गया, शाहजहां के बेटों को यकीन हो गया कि उनका बाप मौत की चौखट पर खड़ा है। शाहजहां के अज़ीमुश्शान दौर का यहीं इख्तेताम हुआ। बादशाह के ज़िंदा रहते ही वारिसान हक़ की एक नयी जंग छिड़ गयी। जिसके बाद हिंदुस्तान में एक नए दौर का आगाज हुआ।
बादशाह का चौथा बेटा ‘औरंगज़ेब’ आलमगीर का लक़ब इख़्तियार करके मुगलिया सल्तनत का नया ताजदार बना। वालिद को आगरे की किले में नजरबंद करके औरंगज़ेब ने अपनी हुकूमत की शुरुआत की। शाहजहां की अज़ीमुश्शान जवानी के बरक्स उनका बुढ़ापा बेहद तन्हाई में बीता। उनकी नजरबंदी के दौरान अक्सर उनकी बड़ी बेटी जहाँआरा बेगम उनके साथ हुआ करती थीं।
नाजायज़ तौर पर हुकूमत हासिल करने वाले बादशाह के तौर पर औरंगज़ेब की जो पहचान बनी, दरअसल उसी ने औरंगज़ेब को और ज्यादा पारसाई बना दिया।
उनके बहुत-से जगज़ाहिर पाकीज़ा काम, जैसे हाथ से लिखकर कुरान की नकलें तैयार करना और कुरान शरीफ याद कर लेना, सब उन की ताजपोशी के बाद बहुत जल्द शुरू हो गए थे।
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